Pages

Sunday, August 20, 2023

गणेश वंदना

गणेश वंदना
************************
जय गणपति जय गिरिजा नंदन,
मूषक वाहन असुर निकंदन,
वक्रतुंड शुचि सूंड सुहावन,
मंगल मूर्ति जय पाप नशावन।

जय गणेश जय जय गणनायक,
आदि देव जय सब सुख दायक,
भाल चंद्र जय जय गजकर्णक,
सुमुख सुरेश जय विघ्न विनाशक।

दुर्वा दल श्रृंगार तुम्हारा,
पान फूल लगे कितना प्यारा,
एकदंत दयावंत कहाते,
विकट विनायक सबके मन भाते।

जय जय हे सिद्धि बुद्धि के दाता,
जय महेश जय पार्वती माता,
सुंदर शोभा अद्भुत तन की
आन हरो अब विपदा जन की।

देते सबको वर मन अभिलाषित,
तुमसे सृष्टि है परिभाषित,
शब्द शब्द मैं महिमा गाऊं,
चरण कमल में भाव चढ़ाऊं।

दास अमित की वंदना, करना प्रभु स्वीकार,
साष्टांग दंडवत नमन करते बारंबार।।
               – अमित पाठक शाकद्वीपी 

Saturday, August 12, 2023

है कौन गुनाहगार यहां

है कौन गुनाहगार यहां
______________________________
भोली भाली सी घरेलु मैं लड़की सीधी साधी थी,
दिन भर मैं यूं बोर न हो तो कुछ लिखने पढ़ने की आदी थी ।

लिखती थीं मैं भी कविताएं ऐसे ही मंच पर,
किसको दोषी ठहराऊं अब उस दिन के उस दंश पर।

बैठी थी यूंही तो फ़िर सोशल मीडिया खोल लिया,
कुछ भाव लिए  कुछ शब्द लिए, कविता में ही कुछ बोल लिया।

आदेश मंच हुआ कि काव्य संग छवि भी लगानी है,
ज्ञात नहीं था किस किस की मुझ पर यूं निगरानी है।

काव्य सृजन को मान मिले तो मैं भी सबकुछ भूल गई,
पोस्ट कर के कविता अपनी आनंद में झूल गई।

सबने देखी सबने परखी सबने प्रशंसा के पुल गढ़े,
लेखनी पर गर्व किया अरमान अब थे और बढ़े।

न जाने किसने मंचो से मेरी छवि चुराली,
अज्ञात से किसी एप्प में भद्दी सी कर डाली।

धीरे धीरे उसका भी प्रचार हुआ,
घर से बाहर कैसे निकलूं इतना फिर दुर्व्यवहार हुआ।

किसकी है ये भूल कहूं क्या , है कौन गुनाहगार यहां,
मेरी नादानी है गलत या मंच जिसने छवि के लिए कहा।

अनजाने में हुआ अनर्थ कोई क्यूं इसका नुकसान सहे,
मंच कहेगा है स्वयं की गलती, हमनें ऐसे नहीं कहें।

दोष अब लगाने से भी कोई न बात बने,
खुद को दोषी न मानेंगे चाहें कितनी भी ठने।

प्रेरित तो आपसे ही हुई थी लिखने को आपके मंच पर,
रोती हूं अब प्रहर प्रहर मैं आंसू है हर अंश पर। 

नर नारी की चेतना का बस अब इतना ध्यान रहें,
लेन देन हो किसी चीज का तो चीज का भी मान रहें।

सही है क्या गलत यहां है इसका कोई तो बोध हो,
किसकी कितनी गलती है इस पर भी कोई शोध हो।

उस दंश का यूं पीर है मन में, जा रही हूं अब आराम को,
अपनी गलती को ठीक करने, चली अनंत विश्राम को ।

मृत्यु ही अब शेष यहां है क्या करेंगे अब इस जीवन का,
दाग गहन है , द्वेष गहन है न भार घटेगा इस मन का।
                         – अमित पाठक शाकद्वीपी

स्वरचित, मौलिक रचना
#जनहित में जारी
कहीं भी फोटो अपलोड करने से पहले पुरा विचार करें। निजता के नियम का कहीं विरोध न हो।